ग्यारस, गरीब, गणेश (गणों का मुखिया), गांव, गाय, गायत्री और गीता ये सात ग समारी संस्कृति के मुख्य आधार हैं। सालों की पराधीनता ने इन सातों को छद्म धर्मनिरपेक्षता एवं थोथे विकासवाद के नाम पर आज मुख्य धारा से दूर कर दिया है। त्याग, संयम और सेवा को छोड़कर भोगवादी संस्कृति को बढ़ावा देने से आज अस्पताल मरीजों से भरे पड़े हैं, कोर्टों में समलैंगिक विवाह को मान्यता पर बहस हो रही है। अंतर्जातीय विवाह और लिव इन पर तो कानून बन ही गए हैं। लव जिहाद, बढते तलाक और बहुओं की घटती संख्या ने हमारे सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया है।
खुशी है कि केंद्र सरकार ने कल तीन नए कानून पारित किए हैं। असल में जो काम आजादी के तुरंत बाद हो जाने थे वो 70 साल बाद हो रहे हैं।
आजादी के संघर्ष में कई लोगों का योगदान था। धूर्त अंग्रेजों से निपटने के लिए कई लोगों ने उन्हीं की थ्योरी से जवाब देने का रास्ता निकाला था। उनकी समझ थी कि देश आजाद होने के बाद हम हमारी आवश्यकताओं एवं संस्कृति के अनुरूप संविधान गढ लेंगे लेकिन सत्ता का मोह और विचारधारा की पराश्रित सोच ने स्थिति ऐसी पैदा कर दी है कि संविधान के मूल ढांचे में हम कुछ भी बदलाव नहीं कर सकते।
थोङे दिनों बाद गणतंत्र दिवस आने वाला है और पिछले महीने ही हमने संविधान दिवस मनाया था। कैसा मूर्खतापूर्ण सिस्टम है इस देश का कि हमें संविधान दिवस पर पाठ्यक्रमों में कहीं जानकारी नहीं मिलती।
आपको एक हिंट दे रहा हूं - बी एन राॅय ! करिए गूगल सर्च और जानिए इनके बारे में।
गीता जयंती एवं मोक्षदा एकादशी की सभी को बहुत बहुत शुभकामनाएं।
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उप चुनाव परिणाम
मैंने अपने एक नवंबर के ब्लॉग में झुंझुनूं से कांग्रेस, खींवसर से आरएलपी व चौरासी से बाप व शेष चार सीटें भाजपा को दी थी। मेरे विश्लेषण में खींवसर, झुंझुनूं व दौसा में उलटफेर हुआ और भाजपा की एक सीट बढी। मैंने अपने ब्लॉग में नतीजों के असर पर भी कयासबाजी की थी। निस्संदेह इन चुनावों में भाजपा के लिए पाने के ही अवसर थे क्योंकि प्रदेश में उपचुनाव में सत्ताधारी दल के साथ कनेक्ट रहने का ट्रेंड रहा है। जिन दो सीटों पर हारी है उनमें दौसा ने चौंकाया है। बैरवा कोई हाई प्रोफाइल नेता नहीं है, मात्र प्रधान रहे हैं वहीं भाजपा से किरोड़ी लाल मीणा ही उम्मीदवार थे। बाबा कांग्रेस सरकार में लङाकू रहे तो अपने आप को सीएम ही मान रहे थे। पिछले काफी दिनों से इस्तीफा दिए घूम रहे थे। विपक्ष के पास यह बङा मुद्दा था। इन चुनावों में भाजपा ने बाबा का जाप्ता कर ही दिया। बाबा अब भी चूं चपड़ करते हैं तो अगले चुनाव में इनका भी डोरा तै। अब सवाल उठता है कि बाबा की हार में फेक्टर क्या रहा? क्या गुर्जर मतदाताओं ने पायलट का साथ दिया? क्या सामान्य वर्ग के मतदाता सामान्य सीट होने के बावजूद एसटी वर्ग को टिकट दिए जाने से नारा...
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